आधुनिक भारतीय साहित्य भाग 3
आधुनिकता की तलाश: आधुनिकतावाद का अर्थ है स्थापित नियमों, परम्पराओं से विचलन लेकिन भारत में यह विद्यमान साहित्यिक प्रतिमानों के विकल्पों की तलाश करना है ।
इस आधुनिकता के किसी एकल संदर्भ बिन्दु का हम अभिनिर्धारण नहीं कर सकते, इसलिए यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारतीय आधुनिकता एक पच्चीकारी के समान है । भारत के संदर्भ में आधुनिकता की संकल्पना का विकास अलग ही रूप में हुआ । रवीन्द्र नाथ टैगोर के पश्चात जीवनान्द दास (1899-1954) बांग्ला के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कवि थे जिन्हें काव्य की पूरी समझ थी । ये चित्रणवादी थे और इन्होंने भाषा का प्रयोग मात्र सम्प्रेषण के लिए नहीं बल्कि वास्तविकता को समझने के लिए भी किया था । भारतीय आधुनिकता की कुछ विशेषताएं पश्चिम की सीमाएं, मानदण्डों के विकार और मध्यम-वर्ग के मन में निराशा हैं तथापि मानवता की परम्परा भी बहुत कुछ जीवित है और बेहतर भविष्य की आशा से इंकार नहीं किया जा सकता है ।
आधुनिक रंगशाला का निर्माण
आधुनिक युग के आगमन और पश्चिमी साहित्य के प्रभाव के परिणामस्वरूप, नाटक ने फिर करवट बदली और साहित्य के एक रूप के रूप में इसका विकास हुआ । 1850 के आसपास, पारसी रंगशाला ने भारतीय पौराणिक, इतिहास और दंतकथाओं पर आधारित नाटकों का मंचन प्रारम्भ किया गया । इन्होंने अपने चल दस्तों के साथ देश के अलग-अलग भागों की यात्रा की और अपने दर्शकों पर भारी प्रभाव छोड़ा । आगा हश्र (1880-1931) पारसी रंगशाला के एक महत्त्वपूर्ण नाटकार थे ।आधुनिक भारतीय रंगशाला ने अपने प्रारम्भिक अपरिपक्वता और सतहीपन के विरोध में प्रमुख रूप से प्रतिक्रियास्वरूप विकास किया । जयशंकर प्रसाद (हिन्दी) और आद्य रंगाचार्य (कन्नड़) ने ऐतिहासिक और सामाजिक नाटकों की रचना की ताकि आदर्शवाद तथा उन अप्रिय वास्तविकताओं के बीच के संघर्ष को उजागर किया जा सके। आधुनिक रंगशाला का निर्माण 1947 में भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् ही पूर्ण हुआ ।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय साहित्यिक परिदृश्य
1946 में भारत में स्वतंत्र होने से कुछ समय पूर्व और देश के विभाजन के पश्चात इस उप-महाद्वीप की स्मृति का सबसे बुरा हत्याकाण्ड देखा । बुद्धिवाद ने आधुनिकता के क्षेत्र में प्रवेश कर लिया था । भारतीय कवियों ने विदेशों की ओर देखा और टी.एस. इलियट, मलार्मे, यीट्स या बौदेलेयर को अपने स्रोत के रूप में स्वीकार किया । मूलभूत संस्कृतियों या मूल्य के स्रोतों की परीक्षा की तलाश करने के रूप में पश्चिमी प्रभाव से स्वतंत्र रूप से विकसित हुई । सामाजिक यथार्थवाद के साहित्य की जड़ें अपनी मिट्टी में थीं और यह समकालिक साहित्य में एक प्रभावी प्रवृत्ति बन गई । डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण व आचार्य नरेंद्र देव की समाजवादी विचारधारा से भारतीय साहित्य में नई दृष्टि आयी । द्रोही एक वर्ण- समाज में हिंसा के रूपों को लेकर चिन्तित थे । भारत के संदर्भ में आधुनिकता के बाद की स्थिति मीडिया-प्रचालित और बाजार-नियंत्रित वास्तविकता की प्रतिक्रिया के रूप में आई थी और यह स्थति अपने साथ विरोध एवं संघर्ष भी लेकर आई ।
दलित साहित्य
आधुनिकतावाद युग के बाद की स्थिति की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता परित्यक्तों द्वारा रचित साहित्य का एक प्रमुख साहित्यिक ताकत के रूप में आविर्भाव होना है । दलित शब्द का अर्थ है पददलित । सामाजिक दृष्टि से शोषित व्यक्तियों से जुड़ा साहित्य और अल्पविकसित व्यक्तियों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का समर्थन करने वाला साहित्य इस नाम से जाना जाता है । साहित्य में दलित आन्दोलन डॉ. बी आर अम्बेडकर के नेतृत्व में मराठी, गुजराती और कन्नड़ लेखकों ने प्रारम्भ किया था । यह प्रगतिशील साहित्य के पददलितों के निकट आने के परिणामस्वरूप प्रकाश में आया ।
पौराणिकता का प्रयोग
पौराणिक विचार निरन्तरता और परिवर्तन के बीच की खाई को बांटने का प्रयास हैं और इस प्रकार से ‘समग्र साहित्य’ के विचार का प्रामाणीकरण किया जाता हैं । पौराणिक अतीत मनुष्य के ज्ञानातीत से संबंध की पुष्टि करता है । यह एक मूल्य संरचना है । समकालिक भारतीय काव्य में सौम्य होने के एक भाव के साथ-साथ विडम्बना का दृष्टिकोण, रचनात्मक प्रतिमाओं जैसे पौराणिक अनुक्रमों का निरन्तर प्रयोग और औचित्य तथा शाश्वत्त्व की समस्याओं के लगातार उलझने में देखने को मिलते हैं । परम्परागत मूल्यों की प्रासंगिकता इनका संस्कार नामक उपन्यास एक विश्वस्तरीय शास्त्रीय कृति है जो मनुष्य के जीवन की मागों की अत्यावश्यकता की दृष्टि से मनुष्य के आत्मिक संघर्ष को प्रस्तुत करता है। इन लेखकों ने भविष्य की ओर देखते हुए जड़ों के गौरव को लौटा कर संस्कृति के तत्त्वों को एक रचनात्मक रीति द्वारा दुबारा जानने, पुन: खोजने तथा पुन: परिभाषित करने का एक प्रयास किया है ।
समकालीन साहित्य
उत्तर आधुनिकता की इस अवधि में ये उपन्यास अस्तित्व की रीतियों की समस्याओं को नाटक का रूप देते हैं । गांवों में वास्तविक भारत की झलक देते हैं और यह भी पर्याप्त रूप से स्पष्ट करते हैं कि यह देश हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई का देश है । इसकी संस्कृति एक मिश्रित संस्कृति है। इन आंचलिक उपन्यासकारों ने पश्चिम द्वारा सृजित इस मिथक को नष्ट कर दिया कि भारतीयता मात्र भाग्यवाद है या यह कि भारतीयता की पहचान मैत्री तथा व्यवस्था से करनी होगी और भारतीय दृष्टि अपनी स्वयं की वास्तविकता को समझ नहीं सकती ।
समकालीन उपन्यासकारों ने जो प्रमुख तनाव महसूस किया वह ग्रामीण और परम्परागत रूप से एक शहरी तथा आधुनिकतावाद से बाद की स्थिति तक का परिवर्तन है जिसे या तो पीछे छूट गए गांव के लिए एक रोमानी विरह के माध्यम से या इसकी समस्त काम-भावना, वीभत्सता, हत्या तथा क्रूरता सहित शहर के भय एवं घृणा के माध्यम से व्यक्त किया गया है । वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य (असमी), सुनील गंगोपाध्याय (बांग्ला), पन्नालाल पटेल (गुजराती), मन्नू भंडारी (हिन्दी) नयनतारा सहगल (अंग्रेजी), वी बेडेकर (मराठी) समरेश बसु (बांग्ला) और अन्यों ने अपनी ग्रामीण-शहरी संवेदनशीलता के साथ भारतीयता के अनुभव को समग्र रूप से प्रस्तुत किया है । उदारवादी महिलाओं के लेखन का सभी भारतीय भाषाओं में प्रखर अविर्भाव हुआ है, कमलादास (मलयालम, अंग्रेजी), कृष्णा सोबती (हिन्दी), आशापूर्णा देवी (बांग्ला), राजम कृष्णन (तमिल) । विजय देव नारायण साही ने हिंदी में आलोचना की एक नई धारा दी । ‘लघुमानव’ के सौंदर्य को उन्होंने साहित्य का सौंदर्य बनाया तथा अपनी कविताओं के माध्यम से हिंदी में चली आ रही पारंपरिक भाषा व कथ्य को बदल दिया है ।भारत के अंग्रेजी लेखकों के लिए अंग्रेजी अब कोई उपनिवेशी भाषा नहीं है । लेखक जो अपनी विरासत, जटिलता और अद्वितीयता के बारे में सजग हैं, अपने लेखन में परम्परा और वास्तविकता दोनों को व्यक्त करते हैं ।
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